महावीर जयंती 2023 लोगों के द्वारा 4 अप्रैल, मंगलवार को मनाया जायेगा।
महावीर जयंती का इतिहास
महावीर जयंती हर साल विशेषरुप से जैन धर्म और अन्य धर्मों के लोगों के द्वारा महान संत, महावीर (जिन्हें वर्धमान के नाम से भी जाना जाता है) के जन्म दिवस के उपलक्ष्य में मनाई जाती है। महावीर स्वामी जैनों के 24वें और अन्तिम तीर्थांकर थे, जिन्होंने जैन धर्म की खोज करने के साथ ही जैन धर्म के प्रमुख सिद्धान्तों को स्थापित किया।
इनका जन्म 540 ईसा पूर्व शुक्ल पक्ष के चैत्र माह के 13वें दिन, बिहार के वैशाली जिले के कुंडलग्राम में हुआ था। इसी कारण महावीर जयंती हर साल 13 अप्रैल को बहुत अधिक उत्साह और आनंद के साथ मनाई जाती है। यह जैनियों के लिए बहुत अधिक महत्वपूर्ण और पारंपरिक उत्सव है। इसे पूरे भारत में राजपत्रित अवकाश के रुप में घोषित किया गया है, इस दिन सभी सरकारी कार्यालय और शैक्षणिक संस्थाओं का अवकाश रहता है।
महावीर जयंती समारोह
महावीर जयंती जैनियों में महावीर जन्म कल्याणक के नाम से मनाई जाती है। ग्रेगोरियन कैलेंडर के अनुसार, यह हर साल वार्षिक रुप से मार्च या अप्रैल के महीने में पड़ती है। यह पूरे देश के सभी जैन मंदिरों में बहुत अधिक जोश के साथ मनाई जाती है। महावीर से जुड़े हुए सभी मंदिरों और स्थलों को इस विशेष अवसर पर फूलों, झंडों आदि से सजाया जाता है। इस दिन, समारोह और पूजा से पहले महावीर स्वामी की मूर्ति को पारंपरिक स्नान कराया जाता है और इसके बाद भव्य जूलुस या शोभायात्रा निकाली जाती है। इस दिन गरीब लोगों को कपड़े, भोजन, रुपये और अन्य आवश्यक वस्तुओं को बाँटने की परंपरा है।
इस तरह के आयोजन जैन समुदायों के द्वारा आयोजित किए जाते हैं। बड़े समारोह उत्सवों का गिरनार और पालीताना सहित गुजरात, श्री महावीर जी, राजस्थान, पारसनाथ मंदिर, कोलकाता, पावापुरी, बिहार आदि में भव्य आयोजन किया जाता है। यह लोगों के द्वारा स्थानीय रुप से महावीर स्वामी जी की मूर्ति का अभिषेक करके मनाया जाता है। इस दिन, जैन धर्म के लोग शोभायात्रा के कार्यक्रम में शामिल होते हैं। लोग ध्यान और पूजा करने के लिए जैन मंदिरों में जाते हैं। कुछ महान जैनी लोग, जैन धर्म के सिद्धान्तों को लोगों तक पहुँचाने के लिए मंदिरों में प्रवचन देते हैं।
महावीर स्वामी के बारे में
महावीर स्वामी, जैन धर्म के 24वें और आखिरी तीर्थांकार, 540 ईसा. पूर्व, भारत में बिहार के एक राजसी परिवार में जन्में थे। यह माना जाता है कि, उनके जन्म के दौरान सभी लोग खुश और समृद्धि से परिपूर्ण थे, इसी कारण इन्हें वर्धमान अर्थात् विद्धि के नाम से जाना जाता है। ये राजा सिद्धार्थ और रानी त्रिशला के घर पैदा हुए थे। यह माना जाता है कि, उनके जन्म के समय से ही इनकी माता को इनके बारे में अद्भुत सपने आने शुरु हो गए थे कि, ये या तो ये सम्राट बनेगें या फिर तीर्थांकार। उनके जन्म के बाद इन्द्रदेव द्वारा इन्हें स्वर्ग के दूध से तीर्थांकार के रुप में अनुष्ठान पूर्वक स्नान कराया गया था।
उन्होंने 30 वर्ष की आयु में धार्मिक जागरुकता की खोज में घर त्याग दिया था और 12 वर्ष व 6 महीने के गहरे ध्यान के माध्यम से इन्हें कैवल्य अर्थात् ज्ञान प्राप्त करने में सफलता प्राप्त हुई थी। इन्होंने पूरे भारत वर्ष में यात्रा करना शुरु कर दिया और लोगों को सत्य, असत्ये, अहिंसा, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह की शिक्षा देते हुए 30 वर्षों तक लगातार यात्रा की। 72 वर्ष की आयु में इन्होंने निर्वाण को प्राप्त किया और जैन धर्म के महान तीर्थांकारों में से एक बन गए, जिसके कारण इन्हें जैन धर्म का संस्थापक माना जाता है।
महावीर स्वामी का जीवन
महावीर स्वामी के जन्म स्थान के विषय में बहुत से मतभेद है, कुछ लोग कहते हैं कि, इनका जन्म कुंडलीग्राम, वैशाली, लछौर, जामुई, कुंदलपुर, नालंदा या बसोकुंड में हुआ था। यद्यपि, उनके जन्म स्थान के बारे में अभी भी अनिश्चिताएं हैं। इनके माता-पिता पारसव के महान अनुयायी थे। इनका नाम महावीर रखा गया, जिसका अर्थ है महान योद्धा; क्योंकि इन्होंने बचपन में ही भयानक साँप को नियंत्रित कर लिया था। इन्हें सनमंती, वीरा और नातापुत्ता (अर्थात् नाता के पुत्र) के नाम से भी जाना जाता है। इनकी शादी के संदर्भ में भी बहुत अधिक मतभेद है, कुछ लोगों का मानना है कि, ये अविवाहित थे, वहीं कुछ लोग मानते हैं कि, इनका विवाह यशोदा से हुआ था और इनकी एक पुत्री भी थी, जिसका नाम प्रियदर्शना था।
30 वर्ष की आयु में घर छोड़ने के बाद ये गहरे ध्यान में लीन हो गए और इन्होंने बहुत अधिक कठिनाईयों और परेशानियों का सामना किया। बहुत वर्षों के ध्यान के बाद इन्हें शक्ति, ज्ञान और आशीर्वाद की अनुभूति हुई। ज्ञान प्राप्ति के बाद, इन्होंने लोगों वास्तविक जीवन के दर्शन, उसके गुण और जीवन के आनंद से शिक्षित करने के लिए यात्रा की। इनके दर्शन के पांच यथार्थ सिद्धान्त अहिंसा, सत्य, असत्ये, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह थे। इनके शरीर को 72 वर्ष की आयु में निर्वाण प्राप्त हुआ और इनकी पवित्र आत्मा शरीर को छोड़कर और निर्वाण अर्थात् मोक्ष को प्राप्त करके सदैव के लिए स्वतंत्र हो गई। इनकी मृत्यु के बाद इनके शरीर का क्रियाक्रम पावापुरी में किया गया, जो अब बड़े जैन मंदिर, जलमंदिर के नाम से प्रसिद्ध है।