मेरी आवाज….✒️ हकीकत से रूबरू कराने वाले पत्रकारों के लिए सुरक्षा कानून का अभाव

राकेश खींची, राजस्थान भारतीय लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ कहे जाने वाले मिडिया (प्रेस) और इससे जुड़े पत्रकार शब्द के जेहन में उभरते ही आंखों के समक्ष विभिन्न जगहों की गठित कई घटनाओं को हूबहू जनता के समक्ष उजागर करने वाले किसी अपरिचित एवं साहसिक व्यक्तित्व की उपलब्धता के बारे में जनता के मन में अनगिनत उजागर विचारों की आवाजा ही होना नितांत स्वाभाविक है। आज की जनता इतनी तो जागरुक है कि किसी भी समाचार पत्र में प्रकाशित समाचार पढ़कर यह अनुमान सहज ही लगा लेती है कि उस खबर की तह तक जाकर उसे समाचार पत्र के माध्यम से जनता तक पहुंचाने वाले उस साहसिक पत्रकार ने कितने कष्ट उठाए होंगे? और बात जब किसी नेता, मंत्री, अधिकारी या किसी जनप्रतिनिधि द्वारा घोटालों से संबंधित समाचारों के प्रकाशन की हो तो समझो उस पत्रकार के ऊपर अनगिनत मुसिबतों का पहाड़ टूटने वाला है। किसी भी भ्रष्टाचारी के विरुद्ध अखबारों में छपी उसके कर्म की पोल खोलती खबर से उसके कारनामों से जहां जनता उसकी हकीकत से रूबरू होती है तो दूसरी तरफ उसे भ्रष्टाचारियों का बौखलाना स्वाभाविक है और उसकी बौखलाहट के साथ ही शुरू हो जाता है उस पत्रकार को प्रताड़ित करने का दौर। जब भ्रष्टाचारी किसी सत्तासीन राजनीतिक दल का हो तो उस पत्रकार के समक्ष सैंकड़ों परेशानियां और चुनौतिया उत्पन्न हो जाती है। यही नहीं प्रेस को सुरक्षा मुहैया कराने वाला प्रशासन भी लोकतंत्र की सरेआम धज्जियां उड़ाते हुए उसकी हत्या तक कर डालता है। आखिर क्यों हो जाता है प्रशासन पंगु ? क्या भ्रष्टाचारियों की दादागिरी इतनी प्रभावी हो गई है कि सच बोलना गुनाह हो गया है। देश में ऐसे सैंकड़ों उदाहरण मिल जाएंगे जहाँ लोकतंत्र की हत्या हुई है और प्रशासन भी उसमें बराबर का भागीदार रहा हो।

पूर्व की पत्रकारिता का इतिहास उठाकर देखें यह बात स्पष्ट रूप से उभरकर सामने आती हैं कि पहले पत्रकारिता व्यावसायिक ना होकर एक मिशन हुआ करती थी और कहीं पर भी किसी तरह की राजनीति का दखल नहीं होता था और आज की पत्रकारिता पर नजर डालें तो इसमें राजनीतिक गतिविधियों का दिनों दिन बढ़ते हस्तक्षेप से पत्रकारिता का पूर्णतया व्यवसायिकरण हो चुका है जो भविष्य में निहायत ही अच्छा संकेत नहीं माना जा सकता है। पत्रकारिता में बढ़ते राजनीतिक हस्तक्षेप से वर्तमान पत्रकारों के समक्ष कई तरह की चुनौतियां उत्पन्न हो रही है। पत्रकारों के हितार्थ बने कई संगठन भी बोने साबित हो रहे हैं। जिसके चलते पत्रकार अपने आप को असुरक्षित महसूस कर रहा है। आज पत्रकारों की स्थिति बड़ी संकटग्रस्त हैं और ग्रामीण क्षेत्रों में बसने वाले पत्रकारों की स्थिति बड़ी दयनीय है।

आज भी इस चुनौतीपूर्ण कार्य पत्रकारिता से जुड़े ग्रामीण पत्रकारों को मानदेय के नाम पर मिलता है तो सिर्फ नाम और सुरक्षा के नाम पर प्रशासन की महज खानापूर्ति इसके बावजूद ग्रामीण क्षेत्रों से जुड़े कई पत्रकार कई मासिक, पाक्षिक, साप्ताहिक, दैनिक समाचार पत्रों से जुड़े हुए होकर अपने कार्य को अंजाम दे रहे हैं जो निश्चय हो बधाई के पात्र हैं। भारत सरकार और देश की राज्य सरकारों को चाहिये कि लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ कहे जाने वाले मीडिया में राजनीतिक दखलंदाजी एवं आए दिन बढ़ते हमलों एवं ग्रामीण पत्रकारों की सुरक्षा सुनिश्चित करने पर गंभीरता से विचार करें और सच्ची पत्रकारिता को जीवंत रखा जा सके। इसके लिए अतिशीघ्र पत्रकार सुरक्षा कानून बनाए जाने की मंहती आवश्यकता है।

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