देशभर में होली का त्योहार बड़े उत्साह और उमंग के साथ मनाया जाता है। देश में अलग-अलग जगह पर त्योहारों को वहां के रीति रिवाज और पंरपराओं के अनुसार मनाते हैं। 6 मार्च को होलिका दहन और 7 मार्च को धुलंडी होगी। अब इस रंगों के त्यौहार अलग-अलग जगह अलग-अलग तरीके से मनाने की सदियों से परंपरा चली आ रही है। वागड़ क्षेत्र की की बात करें, तो यहां लगभग हर क्षेत्र में होली के अलग तरीके है।
देसी व्यंजन हुवारी फाफ्टा का क्रेज
वागड़ में आज भी होली पर बनाए जाने वाले देसी व्यंजन हुवारी फाफ्टा का क्रेज हैं। इसे लोग होली के एक सप्ताह पहले से लेकर होली के लगभग 10 दिन बाद तक बड़े चाव से खाते हैं। यह व्यंजन नाश्ते के रूप में ज्यादा उपयोग में लिया जाता है। हुवारी मीठी और फाफ़्टा तीखे बनता है। गेहूं का आटा, गुड़ से हुवारी और बेसन व गरम मसाले से फाफ्टा बनाए जाते हैं। यह दोनों व्यंजन तलकर बनाए जाते हैं।
गोबर की गादलियां-नारियल चढ़ाते हैं
गांव में होलीका दहन के लिए घरों में गोबर से बनी गादलियां, नारियल और कंडे चढ़ाए जाते हैं। इसके बाद लकड़ियों का ढेर जमा कर होली जलाते हैं। होलीका दहन से पहले भक्त प्रहलाद की सकुशल रहने की कामना के रूप में पूजा अर्चना की जाती है। साथ ही ठंडी होली की परिक्रमा भी की जाती है।
वागड़ में होली पर नवजातों का ढूंढोत्सव मनाने की अनूठी परंपरा है। बच्चों को होली चौक पर अग्नि की परिक्रमा कराई जाती है। लोक मान्यता है कि जलती होली के धुएं से बच्चे स्वस्थ और निरोगी रहते हैं। होली चौक पर बच्चों को ढूंढाया जाता है। सामूहिक ढूंढोत्सव भी मनाते हैं।
वागड़ में होली पर अंगारों पर चलने की परंपरा भी निभाई जाती है। लोगों में अंगारों पर चलने का ऐसी आस्था कि उनके पैरों में पड़ने वाले छाले भी दर्द का एहसास नहीं देते हैं। सागवाड़ा उपखंड क्षेत्र के कोकापुर गांव में आज भी होली पर अंगारों पर चलते हैं।
एक दूसरे पर बरसते है पत्थर
भीलूड़ा गांव में पत्थरमार होली खेलने की परंपरा है। स्थानीय बोली में इसे राड़ कहा जाता है। इस राड़ परंपरा को देखने के लिए गुजरात और मध्य प्रदेश के सीमावर्ती गांवों से लोग आते हैं। रोचक आयोजन के लिए शाम में गांव की दो टोलियां आमने-सामने हो जाती है और एक दूसरे पर पत्थरों की बौछार करती है। कार्यक्रम का आयोजन गांव के रघुनाथजी मंदिर के पास मैदान में होता है।
हजारों दर्शकों की मौजूदगी में दोनों दलों के प्रतिभागी जोश और उत्साह में एक-दूसरे पर पत्थरों की बारिश करते हैं। रस्सी के बने गोफनों से लगभग दो घंटों तक पत्थर बरसते हैं। दोनों दलों के प्रतिभागी परंपरागत ढालों से बचने का प्रयास करते हैं और कई लहुलूहान भी हो जाते हैं। लहूलुहान होने के बाद भी परंपरागत आयोजन को पूरी श्रद्धा से मनाया जाता है।