चौदस पर पूर्वजों का पूजन और सीरा स्थापना की विशेष परंपरा

वागड़ में दीपावली के बाद कार्तिक शुक्ल पक्ष की चौदस और पूर्णिमा पर होती है पूर्वजों की पूजा-अर्चना, परिवार को मिलता है उनका आशीर्वाद

सागवाड़ा/दीपावली के बाद अब कार्तिक शुक्ल पक्ष की चौदस और पूर्णिमा पर पूर्वजों की पूजा-अर्चना कर उनकी प्रतिमाओं की स्थापना की जाएगी। वागड़ अंचल में आदिवासी समाज में पूर्वजों और सीरा बावसी के पूजन की विशेष परंपरा रही है।

मान्यता है कि मृतक की आत्मा को उसकी इच्छा के अनुसार पसंद के स्थान पर बैठाने से परिवार को उसका आशीर्वाद मिलता है। पंडित जयदेव शुक्ला ने बताया कि हिंदू केवल धर्म ही नहीं, जीवन शैली भी है। इसमें विभिन्न समाजों में अपने पूर्वजों का सम्मान करने के विशेष पारंपरिक तरीके हैं। इसी के तहत आदिवासी समाज के साथ ही यहां के कईं अन्य समाज के लोग सीरे स्थापित कर अपने पूर्वजों के प्रति कृज्ञता दर्शाते हैं।

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प्राणत्यागने के स्थान से आत्मा को लाते हैं

परिवारके बड़े-बुजुर्ग की वृद्धावस्था के बाद प्राकृतिक मौत होने पर दूसरे या तीसरे साल घर या खेतों के आसपास छोटा मंदिर, ओटला या चबूतरा बनवा कर उस पर सीरा (पत्थर पर प्रतिमा रूप आकार) स्थापित किया जाता है। अगर किसी व्यक्ति की बीमारी के चलते अस्पताल या दुर्घटना में सड़क पर कहीं मौत हो जाती है तो ऐसी स्थिति में परिवार के सदस्य गाजे-बाजे के साथ उस स्थान पर पहुंच कर आत्मा को अपने साथ आने का भाव करते हैं। मान्यता है कि ऐसा करने से अकाल मौत का शिकार हुए परिजन की आत्मा उनके साथ निवास स्थान पर आती है और उसे इच्छित स्थान पर स्थापित किया जाता है।

परिवार का सदस्य या स्नेही होता है वाहन(माध्यम) मान्यता के अनुसार मृतात्मा परिवार के किसी खास सदस्य या स्नेही के माध्यम से घर के किसी विशेष स्थान पर अपना स्थानक बनाने की सूचना देती है। जिसे आदिवासी समाज घोड़ा अर्थात् वाहन कहते हैं। वे मानते हैं कि उसी के साथ मृत आत्मा घर या खेतों में अपने इच्छित स्थान पर स्थापित होने के लिए आती है।

मूर्तिकार के यहां से गाते बजाते ले जाते हैं सीरा आदिवासीसमाज में दिवाली लाभ पंचमी के बाद का समय पूर्वजों के पूजन उनकी स्थापना के लिए शुभ माना जाता है। कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की चौदस के दिन सुबह से रात तक आदिवासी समाजजन अपने पूर्वजों के पूजन अर्चन एवं प्रतिमा स्थापना जैसे आयोजन करते हैं। इसके लिए मूर्तिकार से सीरे अर्थात् प्रतिमाएं बनवाई जााती हैं। जिसमें पत्थर पर सर्प, घुड सवार, पुरुष अथवा स्त्री का आकार उकेरा जाता है। जिसे परिवार के सदस्य ग्रामीण गाते बजाते अपने घर ले जाते हैं। इसकी वाहन (घोड़ा) सहित परिजनों द्वारा स्थापना करने के बाद सामूहिक रूप से भोजन महाप्रसाद के आयोजन करते हैं।

मूर्तिकारों को मिलता है रोजगार बदलते परिवेश और आधुनिकता के बावजूद परपंराओं के निर्वहन से स्थानीय मूर्तिकारों और कलाकारों को भी रोजगार मिल रहा है। सागवाड़ा, डूंगरपुर, तलवाड़ा, भीलूड़ा जैसे गांवों और शहरों में शिल्पी समाज के लोग मूर्तियां और मंदिर बनाने का पारंपरिक कार्य करते हैं, उनको पूर्वजों के पूजन के लिए विभिन्न के प्रकार सीरा अर्थात पत्थर पर प्रतिमा उकेरने का कार्य करने से अच्छी खासी आमदनी हो जाती है।

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